सांप्रदायिक निर्णय-(or Communal decision)-
16 अगस्त 1932 को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने सांप्रदायिक निर्णय(Communal decision) की घोषणा की।
सांप्रदायिक निर्णय उपनिवेशवादी शासन की “फूट डालो राज करो” की नीति का एक और प्रमाण था।
Communal decision
सांप्रदायिक निर्णय के प्रावधान-(Communal dicision)
- मुसलमानों,सिखों एवं यूरोपियों को पृथक सांप्रदायिक मताधिकार प्रदान किया गया।
- आंग्ल-भारतीयों, भारतीय ईसाईयों तथा स्त्रियों को भी पृथक सांप्रदायिक मताधिकार प्रदान किया गया।
- प्रांतीय विधानमंडल में सांप्रदायिक आधार पर स्थानों का वितरण किया गया
- बम्बई प्रांत में सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों में से 7 स्थान मराठों के लिए आरक्षित कर दिए गए
- विशेष निर्वाचन क्षेत्रों में दलित जाति के मतदाताओं के लिए दोहरी व्यवस्था की गई
- दलितों को अल्पसंख्यक के रूप में मान्यता दी गई
पूना समझौता-(Poona Pact)
सितंबर 1932 में डॉ. अंबेडकर तथा अन्य हिंदू नेताओं के प्रयत्न से स्वर्ण हिंदुओं तथा दलितों के मध्य एक समझौता किया गया, इसे पूना समझौता के नाम से जाना गया
समझौते के अनुसार-
- दलित वर्ग के लिए पृथक निर्वाचन मंडल समाप्त कर दिया गया।
- व्यवस्थापिका सभा में अछूतों के स्थान पर हिंदुओं के अंतर्गत ही सुरक्षित रखे गए।
- प्रांतीय विधान मंडलों में दलितों के लिए आरक्षित सीटों की संख्या 47 से बढ़ाकर 147 कर दी गई।
गांधीजी का हरिजन अभियान-
- सांप्रदायिक निर्णय तथा पुणे समझौता द्वारा भारतीयों को विभाजित करने की व्यवस्थाओं ने गांधीजी को बुरी तरह आहत कर दिया।
- गांधी जी ने यरवदा जेल से ही “अस्पृश्यता निवारण अभियान” प्रारंभ कर दिया।
- अगस्त 1933 में जेल से रिहा होने के उपरांत उनके आंदोलन में और तेजी आ गई।
- सितंबर 1932 में अपनी कारावास की अवधि में उन्होंने “अखिल भारतीय अस्पृश्यता विरोधी लीग” का गठन किया।
- जनवरी 1933 में उन्होंने हरिजन नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन प्रारंभ किया।
- 7 नवंबर 1933 को वर्धा से गांधी जी ने अपनी हरिजन यात्रा प्रारंभ की।
- नवंबर 1933 से जुलाई 1934 तक गांधी जी ने पूरे देश की यात्रा की तथा लगभग 20000 किलोमीटर का सफर तय किया।
- इस यात्रा का मुख्य उद्देश्य हर रूप से अस्पृश्यता को समाप्त करना था।
- दलितों को “हरिजन नाम” सर्वप्रथम गांधी जी ने ही दिया था।
- इस अभियान में गांधीजी 8 मई व 16 अगस्त 1933 को दो बार लंबे अनशन पर बैठे।
- गांधी जी ने जाति निवारण तथा छुआछूत निवारण में भी भेद किया।
- इस मुद्दे पर वे डॉ अंबेडकर के इन विचारों से असहमत थे कि –
छुआछूत की बुराई जाति प्रथा की देन है, तथा जब तक जाति प्रथा बनी रहेगी, यह बुराई भी जीवित रहेंगी, जाति प्रथा को समाप्त किए बिना अछूतों का उद्धार संभव नहीं है।
गांधी जी का कहना था कि-
वर्णाश्रम व्यवस्था के अपने कुछ दोष हो सकते हैं, लेकिन इसमें कोई पाप नहीं है। हां छुआछूत अवश्य पाप है। उनका तर्क था कि छुआछूत जाति प्रथा के कारण नहीं अपितु ऊंच-नीच के कृत्रिम विभाजन के कारण है,
यदि जातियां एक दूसरे की सहयोगी एवं पूरक बन कर रहे तो जाति प्रथा में कोई दोष नहीं है, कोई भी जाति ना उच्च है ना निम्न, उन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थक एक विरोधियों दोनों से आह्वान किया कि वे आपस में मिलकर काम करें क्योंकि दोनों ही छुआछूत के विरोधी है।