पझौता किसान आंदोलन(1939-45ई.) सिरमौर रियासत का
पझौता किसान आंदोलन(1939-45ई.)
पझौता किसान आंदोलन भारत छोड़ो आंदोलन का ही भाग था।
यह आंदोलन राजा राजेंद्र प्रकाश के शासनकाल में अक्टूबर 1942 में हुआ।
यह आंदोलन तानाशाही के खिलाफ था।
प्रमुख कारण:
इस समय दूसरा विश्व युद्ध(1939-45) जोरों पर था, और बंगाल में अकाल पड़ा हुआ था उनकी कमी अनुभव हो रही थी।
सरकार ने यह आदेश दिए कि किसान लोग अपने पास थोड़ा अन्न रखें और शेष अन्य सरकारी को-ऑपरेटिव सोसाइटियो में बेच दें।
आलू का भाव 16 रुपए प्रति मन (15kg ) होते हुए भी किसानों को आलू 3 रुपए प्रति मन की दर से राज्य को-ऑपरेटिव सोसायटीयों को देने के कड़े आदेश दिए गए।
घराट, रीत विवाह आदि अनुचित कर लगाए गए,कर्मचारी लोगों से अधिक ‘वेगार’ लेने लगे और कई बार वे उनसे घी, अन्न आदि भी लेते थे।
पझौता किसान सभा का गठन
पझौता किसान आंदोलन(1939-45ई.)
अनुचित आदेशों से हुई परेशानियों से छुटकारा पाने के उद्देश्य से लोग बड़ी आशाओं और उत्सुकताओं को लेकर पझौता के गांव टपरौली में अक्टूबर 1942 को एकत्रित हुए।
‘पझौता किसान सभा’ का गठन करके इसके प्रधान लक्ष्मी सिंह गांव कोटला तथा सचिव वैद्य सूरत सिंह कटोगड़ा चुने गए।
इसके अतिरिक्त टपरोली गांव के मियां गुलाब सिंह और अतर सिंह, जंदोल के चू चू मियां, पेणकुफर के मेहर सिंह, धामला के मदन सिंह बघोह के जालम सिंह, नेरी के कलीराम शाबगी भी शामिल थे।
कुछ समय बाद लक्ष्मी सिंह प्रधान को निकालकर धामला गांव के मदन सिंह को प्रधान बना दिया गया।
आंदोलनकारियों का संघर्ष
पझौता किसान आंदोलन(1939-45ई.)
इस आंदोलन का समूचा नियंत्रण व संचालन वैद्य सूरत सिंह के अधीन था।
उसने राजा राजेंद्र प्रकाश से पत्र द्वारा अनुरोध किया कि वह स्वयं लोगों की स्थिति जानने के लिए इलाके का दौरा करें।
नौकरशाही द्वारा लोगों से दूर व्यवहार रिश्वतखोरी व झूठे मुकदमे बनाकर परेशान करने तथा ‘बेगार’ बंद करने जैसे अनेक मांगों पर ध्यान दें।
सिरमौर नरेश राजेंद्र प्रकाश प्रभावी कर्मचारियों की चापलूसी पर आश्रित था।
उन्होंने राजा को अपने लोगों से मिलने नहीं दिया और उसे विश्वास दिलाया कि लोग राजा का अपमान करना चाहते हैं जो सत्य नहीं था।
इसलिए आंदोलन को दबाने तथा उसके मुख्य संचालकों को पकड़ने के लिए रामस्वरूप पुलिस अधिकारी के संचालन में पुलिस गांव धामला, हाब्बन भेजी गई।
पुलिस आंदोलन को दबा ना सकी जिससे पूरा क्षेत्र सैनिक शासन के अधीन कर दिया गया, 2 मास तक लोग बराबर ‘मार्शल लॉ’ के अधीन भी आंदोलन करते रहे।
आंदोलनकारी कालीराम का मकान जला दिया गया और वैद्य सूरत सिंह के मकान को डायनामाइट से उड़ा दिया गया।
सैनिक शासन और गोली कांड के बाद सेना और पुलिस ने आंदोलनकारियों में मुख्य व्यक्तियों (69) को गिरफ्तार कर लिया गया।
कुछ लोगों ने जुब्बल के राजा भगत चंद के पास जाकर शरण ली, नाहन में एक ट्रिब्यूनल बैठाकर आंदोलनकारियों पर मुकदमे चले।
10 वर्ष बाद की श्रेणी में वैद्य सूरत सिंह ,मियां गुलाब सिंह, अमर सिंह, मदन सिंह आदि थे।
सबसे बाद में कैद से वैद्य सूरत सिंह, बस्ती राम पहाड़ी, चेत सिंह वर्मा को मार्च 1948 में छोड़ा गया।
निष्कर्ष
पझौता किसान आंदोलन(1939-45ई.)
यह स्पष्ट रूप से किसन आंदोलन था, कुछ लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम के आंदोलन से जोड़ने का प्रयास करा जो ऐसा नहीं लगता।
लेकिन लोगों ने इसे आंदोलन और असहयोग आंदोलन की तरह से ही सरकार को अनुचित दिशा निर्देशों के प्रति और असहयोगकारी नीति अपनाए रखी।
लोक दमनकारी नीतियों के विरुद्ध ना तो कर दे देना चाहते थे और ना ही अंग्रेज़ सरकार को किसी प्रकार की भर्ती के लिए युवाओं का योगदान।